Monday, August 13, 2018

पब्लिक ट्रांसपोर्ट का घिनौना सच !

Frotteurism:
(पब्लिक ट्रांसपोर्ट का घिनौना सच)


image source:http: www.rebelcircus.com


ध्यान दें ---- ये आर्टिकल मेरे इंगलिश मे लिखे हुए आर्टिकल "Perverts In Our Public Transports " का हिन्दी अनुवाद है।

इस आर्टिकल में मैंने काफी निचले स्तर की भाषा का इस्तेमाल किया है अब ये कोई चटपटी कहानी तो है नहीं सच्चाई है और सच्चाई तो जैसी हो उसे वैसे ही बताना चाहिए, बोले तो  आसान शब्दों में।       

"फ्रोटयूरिज्म़" एक अंग्रेजी का शब्द है और डिक्शनरी में "चिकित्सकीय रूप से" फ्रोटयूरिज्म़ का सीधा - साधा मतलब है की पब्लिक प्लेस या पब्लिक ट्रांसपोर्ट में आपकी सहमति के बिना आपके शरीर से अपने शरीर को छुआना और आपके शरीर से छेड़छाड़ करके यौन उत्तेजना या संभोग (सेक्स)का मज़ा लेने की कोशिश करना, और सरल भाषा मे बोलू तो, बस, ट्रेन या मेट्रो में भीड़ का फायदा उठाकर आपके शरीर पर अपना गुप्तांग रगड़ना ।

सुनने में अजीब लगा? इसी गंदे काम को "फ्रोटेज" भी कहा जाता है।

सार्वजनिक स्थानों या सार्वजनिक परिवहन में हमारे शरीर से अपना शरीर सटा कर खड़े होना  एक सामान्य बात है और अगर कोई दिमागी रूप से बीमार है तो ऐसा करने से यौन दुर्व्यवहार करना भी बहुत आसान हो जाता है, ज्यादातर देशों में किसीको बिना अनुमति छूना भी एक अपराध माना जाता है फिर चाहे वजह कोई भी हो पर हमारे यहां "एडजस्ट कर लो" बोल कर आपकी पैंट भी उतारी जा सकती है "हिंदुस्तान है भाई" यहाँ आबादी इतनी है की अगर सब मिलकर छींक भी दें तो किसी छोटे मोटे देश की साल भर की पानी समस्या दूर हो जाएगी। 

अगर सोचा जाए तो हमारे कूल्हों पर किसी के गुप्तांग का संपर्क कोई आम बात नहीं है लेकिन फिर भी हमारी आधिकारिक भाषा में इस दुर्व्यवहार के लिए कोई शब्द ही नहीं है। और सुनिये चौंकाने वाला सच ये है की हमारे देश में इसके बारे में कभी कोई बात भी नहीं करता है। 
सुबह-सुबह अपनी बेटी को "दही-मछली" बोलकर मीठा दही खिलाने से ज्यादा जरुरी है शाम को काम से लौटने के बाद उससे बात करना और उसके दिन के बारे में जानना, कभी-कभी अपने माता पिता को परेशान ना करने के चक्कर में हमारी बेटियां कुछ गंदे लोगो की गन्दी हरकतों को बर्दाश्त करती रहती हैं जिसकी वजह से इन गन्दी सोच वाले लोगो को ऐसा लगता है की शायद वो लड़की भी उनके इस गंदे काम का मज़ा ले रही है और इन अपराधियों की ये ग़लतफ़हमी और बढ़ती हुई हिम्मत किसी दिन कोई बड़ा हादसा भी कर सकती है।  

अब कुछ दिन पुराना दिल्ली का वाक्या ही ले लीजिये, यौन उत्पीड़न के लिए एक महिला को मनाने में फेल होने पर, एक आदमी को एक महिला यात्री के सामने बस में हस्तमैथुन करते पकड़ा गया था। लेकिन यह एक खुली-व्यापक घटना थी और वो साहसी महिला इस घटना की फुटेज बनाने में भी कामयाब हुई जिसकी वजह से हमारी वी-आई-पी सेवा के लिए बनी पुलिस ने उस आदमी को गिरफ्तार भी किया था और उम्मीद है की जब तक मामला शांत नहीं हुआ तब तक उसपर नज़र भी रखी गयी होगी। मामला शांत होने के बाद उसे छोड़ दिया गया होगा और अब वो पहले से सतर्क होकर फिर से अपनी बुद्धिहीन हरकते करेगा जब तक की वो फिर से नहीं पकड़ा जाता। अब ऐसे अपराधियों को ज़िन्दगी भर तो जेल में रख नहीं सकते, हमारी जेल में कितने सेलिब्रिटी, नेता और उनके रिश्तेदार रहते हैं ऐसे अपराधियों से उन्हें भी तो खतरा हो सकता है 

अब पुलिस रोज-रोज ऐसे अपराधियों के पीछे भी नहीं भाग सकती, कमाई भी तो करनी होती  है खाली थोड़ी-ही ना बैठी है हमारी पुलिस। 
अपराधियों को पकड़ने के अलावा और भी कई जरुरी काम हैं भाई। पर सच तो ये है की आम तौर पर हर रोज ही सार्वजनिक-परिवहन में विभिन्न प्रकार के यौन उत्पीड़न होते हैं।
                     image source:deskgram.org

मैंने एक लड़की से बात की जो रोज मेट्रो से सफर करती है प्रियंका नाम की इस लड़की ने जो बताया वो भी काफी हद तक हमारे पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन की सच्चाई बताता है "व्यस्त दिनों में, राजीव चौक टर्मिनल पर मेट्रो में धक्का दिया जाना और कई पुरुषों से घिरा होना एक आम बात है, कभी-कभी मुझे 3 से 4 पुरुषों के बीच में खड़ा होना पड़ता है और मैं अपने शरीर पर रगड़ को महसूस कर सकती हूं। दुर्भाग्यवश, मेट्रो मे इतनी भीड़-भाड़ होती है कि भले ही हम इस स्थिति में सहज महसूस न करें, फिर भी हम कुछ नहीं कर सकते ।"

ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी खराब है जहां परिवहन के तरीके सीमित हैं और उनमें भीड़ भी काफी अधिक हैं; इन घटनाओं को देखा तो अक्सर जाता है पर काफी कम स्वीकार किया जाता है। ऐसी कई लड़कियां हैं जो इस तरह के उत्पीड़न के खिलाफ खड़ी होती हैं और ऐसी भी लड़कियां हैं जो इस पर ध्यान नहीं देना चाहती हैं और इसे सहन करती रहती हैं।

जब से कॉर्पोरेट क्लचर हमारे ऊपर थोपा गया है, हमने उन्नत देशों को देखा-देखी काफी हद तक अपने आप को बदल लिया है और ये हमारे खाने पीने में, ड्रेसिंग और काम करने के तरीके में दिखाई भी देता है, लेकिन जब किसी महिला का सम्मान करने की बात आती है तो अफसोस हम में से कुछ लोग अभी भी पुरानी आदतों से बाज़ नही आते और महिलाओ के लिए गंदी सोच रखते  हैं।

वैसे इस तरह के गंदे व्यवहार को रोकने के लिए कानून हैं, आईपीसी की धारा 354 (ए)(बी) (सी)(डी) के अनुसार, यह कहा गया है कि सभी गैर-पारस्परिक यौन प्रगति को अपराध माना जाता है। आगे की धारा 354(ए) स्पष्ट रूप से बताती है कि "अवांछित और स्पष्ट यौन उत्पीड़न से जुड़े शारीरिक संपर्क और प्रगति" एक दंडनीय अपराध है। इसके अलावा धारा 294 मे तो ये कथित है की, कोई अश्लील गीत या सार्वजनिक स्थान पर अपशब्दों को गाना, बोलना या पढ़ना भी एक अपराध है। लेकिन हमारे देश में कानून स्पीड ब्रेकर की तरह हैं जनाब, आप आसानी से बच कर निकल सकते हैं और अगर ब्रेकर पर गाड़ी चढ़ भी गई तो बस थोड़ा सा झटका लगेगा। 
वैसे भी अक्सर इस तरह की घटनाओं में, शिकायत करने के लिए कोई भी आगे नहीं आता है, क्योंकि कुछ के लिए ये एक आम बात है।

दिल्ली में कोइ भी घटना होती है तो ज्यादातर लोग जो दूसरे शहरों से दिल्ली आकर बसे हैं सबसे पहले ये बात बोलते हैं "जहां से हम आयें हैं वहां तो ये सब आम बात है" या फिर "ये तो हमारे शहर में आम बात है" ये बोलकर वो अपने शहर को बदनाम तो करते ही हैं साथ ही अपनी कायरता और हरामखोरी (आलस) का सबूत भी बड़ी शान से पेश करते हैं पर ऐसी सोच से सबसे बड़ा नुकसान होता है अपराध को आम बात मान लेना और अपराधियों को प्रतिरक्षा दे देना । 
यह मानसिकता उन्हें सार्वजनिक परिवहन में इस तरह के अश्लील व्यवहार को जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करती है। हालांकि कुछ मामलों में, महिलाएं ऐसी हरकत पर चांटा मारकर या धक्का देकर विरोध जता देती हैं पर ज्यादातर इसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।  जिसकी वजह से ये गंदगी सार्वजनिक अपराधियों के दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाती है और आसानी से बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों में बदल जाती है।

सार्वजनिक परिवहन में किसी लड़की को धक्का देना ग़लत ही नही बल्की एक गंभीर अपराध है; "Frotteurism" अगर हम इसे अपनी भाषा में नाम दें तो "सार्वजनिक-रेप" है जिससे हमारे देश की महिलाऔं को रोज रूबरू होना पड़ता है। "निर्भया" को न्याय मोमबत्ती जलाकर नही मिल सकता । कैंडिल-लाइट-मार्च हमारे देश में या तो एक "गैट-टूगैदर" (मज़े के लिए एकत्र होने)  या फिर किसी उभरते हुए नेता का शक्ति प्रदर्शन की तरह है, इनसे हमारा समाज नहीं बदलेगा । 

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और महिला सशक्तिकरण के विज्ञापनों की धुंध में, हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अपराधी मंगल ग्रह से नहीं आते हैं, वे हमारे बीच ही हैं और हम में से एक हैं। यदि आप आज आपराधिक कृत्य को नजरअंदाज करते हैं, तो आप भी किसी अपराधी से कम नहीं हैं । 

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से ज्यादा हमारे देश को बेटा पढ़ाओ या फिर उसकी नसबंदी कराओ जैसे नारे की जरूरत है



I, Varun Awasthi, hereby state that

a.     This article authored by me is original and not plagiarized from any other sources.
b.     This article has not previously been published/featured in any other media prior to this.

1 comment:

Unknown said...

So true..... well explained👍

Legalizing The Legal, Section 377

Legalizing The Legal, Section 377                                                                   image credits: latuff cartoon* ...